Hindi Diwas ( image from Social Media).
Hindi Diwasहिंदी दिवस विशेष: आधुनिक हिंदी के विकास पर चर्चा करने से पहले, हमें उस समय की परिस्थितियों और बाहरी प्रभावों को समझना आवश्यक है। हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, बल्कि यह भारतीय जनता की भावनाओं को व्यक्त करने का एक माध्यम है, जो विभिन्न बोलियों के शब्दों को मिलाकर एक सुंदर माला बनाती है। यह पूरे देश के लोगों को एक सूत्र में बांधती है।
बाबा विक्रम आदित्य बेदी के अनुसार, 712 ईस्वी में उत्तर भारत पर इस्लामी आक्रमण से पहले, प्राकृत भाषाएँ प्रचलित थीं। ये भाषाएँ संस्कृत के निकट थीं और इनमें आधुनिक हिंदुस्तानी की तरह अरबी के उधार शब्द नहीं थे। संस्कृत का अध्ययन उस समय भी व्यापक था, और जिस क्षेत्र को आज पाकिस्तान कहा जाता है, वह सांस्कृतिक रूप से उत्तर भारत के अन्य हिस्सों के समान था, सिवाय इसके कि वहां बौद्ध आबादी अधिक थी। दिलचस्प है कि इन्हीं क्षेत्रों में इस्लाम का प्रसार हुआ। समय के साथ, उत्तर भारत की भाषा में बदलाव आया और कई अरबी शब्द फ़ारसी के माध्यम से हिंदी में शामिल हो गए। 1947 के बाद, इन शब्दों को हिंदी से हटाने के प्रयास किए गए, लेकिन सफलता मिली या नहीं, यह अलग बात है। अब बोलचाल में उधार शब्दों का प्रयोग मूल संस्कृत शब्दों के साथ किया जाने लगा है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि मुस्लिमों के आगमन से पहले, शिक्षित वर्ग में संस्कृत का प्रयोग होता था। धार्मिक ग्रंथों और साहित्य में संस्कृत का उपयोग सामान्य था। हालांकि, विभिन्न क्षेत्रों में प्राकृत और उसकी बोलियाँ आम लोगों के बीच प्रचलित थीं। दक्षिण भारत में, तमिल, तेलुगु और अन्य भाषाएँ भी प्रमुख थीं।
व्यापार और सांस्कृतिक अंतर्क्रियाओं ने पाली भाषा के प्रयोग को बढ़ावा दिया, विशेषकर बौद्ध संदर्भों में, और क्षेत्रीय भाषाएँ विभिन्न समुदायों के बीच संवाद का महत्वपूर्ण साधन बन गईं।
ईरान के इस्लामिक आजाद विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर अबोलफेथ मोमेनी ने अपने शोध में बताया है कि अरबी, जो इस्लामी दुनिया की अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, धीरे-धीरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गई। यह भाषा भारत में मुसलमानों द्वारा विशेष रूप से उपयोग की जाती थी, लेकिन इस्लामी सरकारों के विकास के साथ, अरबी भाषा को शासकों का समर्थन मिला, जिससे अरबी लिपि का प्रसार हुआ।
अरबी भाषा भारत में कैसे आई, इसके परिणाम दर्शाते हैं कि उपमहाद्वीप में इस्लाम के प्रसार के साथ, यह भाषा पहली शताब्दी हिजरी से भारत में प्रवेश कर गई। यह भारतीय जीवन के विभिन्न पहलुओं में, जैसे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी।
केरल की शोधकर्ता धान्या का मानना है कि फ़ारसी मुग़लों की आधिकारिक भाषा थी, लेकिन बाद में यह अभिजात वर्ग की भाषा उर्दू में विकसित हुई। हिंदुओं ने मुसलमानों को सह-निवासी मान लिया और धीरे-धीरे उनकी भाषा और शैली से प्रभावित होने लगे। इसे पारस्परिक प्रभाव कहा जा सकता है। हिंदुओं ने फ़ारसी सीखना शुरू कर दिया और फ़ारसी के शब्द स्थानीय भाषाओं में शामिल हो गए। आधुनिक हिंदी, जिसमें फ़ारसी और अरबी से लिए गए उर्दू शब्दों के साथ संस्कृत आधारित शब्दावली का प्रयोग होता है, उर्दू के साथ परस्पर बोधगम्य है। आज उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा और भारत की एक महत्वपूर्ण सह-आधिकारिक भाषा है। यह सही कहा जा सकता है कि फ़ारसी कला और संस्कृति दोनों भाषाओं के संयुक्त उपयोग के माध्यम से भारतीय कला और संस्कृति में समाहित हो गई। इन सब भाषाओं से लिए गए शब्दों का मिला-जुला रूप हिंदी है।
हालांकि, यह कहना गलत नहीं होगा कि उस समय हिंदी का अस्तित्व था। हिंदी व्याकरण पर किसी मुसलमान द्वारा लिखी गई सबसे पुरानी किताब संभवतः मिर्ज़ा ख़ान इब्न फ़ख़रुद्दीन मुहम्मद की "तुहफ़तुल हिंद" है, जो हिंदी की ब्रजभाषा बोली के व्याकरण पर 1675 ई. के आसपास लिखी गई थी। इस लघु ग्रंथ में हिंदी साहित्य के विभिन्न पहलुओं, जैसे व्याकरण, छंद और अलंकार, पर चर्चा की गई है।
इसके बाद हिंदी भाषा का पहला महत्वपूर्ण व्याकरण ग्रंथ डच विद्वान जोन जोशुआ केटेलार द्वारा लगभग 1698 में लिखा गया था। यह कार्य 1700 के दशक के आरंभ में पूरा हुआ। केटेलार का यह प्रयास हिंदी व्याकरण का दस्तावेजीकरण करने का पहला प्रयास था, जिसका उद्देश्य डच ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों को यह भाषा सिखाना था।
हिंदी के पहले व्याकरण 16वीं सदी में लिखे गए थे, लेकिन इनकी लिपि हिंदी नहीं थी। इसलिए हिंदी का पहला व्याकरण अम्बिका प्रसाद वाजपेयी का माना जाता है। इसके बाद कामता प्रसाद गुरु का हिंदी व्याकरण आया और देश को आजादी मिलने के बाद किशोरीदास वाजपेयी का हिंदी शब्दानुशासन आया, जिसने हिंदी को अन्य भाषाओं के प्रभाव से मुक्त किया।
हालांकि, यह भी सच है कि मुस्लिम शासन के दौरान हिंदी का विकास तेजी से हुआ। इस दौरान हिंदी के कवि तुलसी, सूर, बिहारी, छत्रसाल, कबीर आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अलावा, अब्दुल कादिर बदायुनी, फैजी, अबुल फजल और निजामुद्दीन ने भी हिंदी को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी के प्रसिद्ध कवि राजा बीरबल, मानसिंह, भगवानदास, नरहरि, हरिनाथ आदि इसी दौर में हुए। नन्ददास, विट्ठलदास, परमानन्द दास, कुम्भन दास आदि को भी इसी समय मान्यता मिली। सुन्दर कविराय ने ‘सुन्दर श्रृंगार’, ‘सेनापति ने ‘कवित्त रत्नाकर’, कवीन्द्र आचार्य ने ‘कवीन्द्र कल्पतरु’ की रचना मुस्लिम शासन के दौरान की।
कुल मिलाकर, तमाम विसंगतियों के बावजूद मुस्लिम शासन के दौरान हिंदी में काफी काम हुआ। हालांकि, देश को आजादी मिलने के बाद हिंदी राजभाषा बन गई, लेकिन हिंदी में ऐसे नाम नहीं उभरे जिन्हें हम सूर, तुलसी, कबीर के समकक्ष रख सकें। हिंदी में अभी भी और काम करने की काफी संभावनाएँ हैं।
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